बुधवार, 4 जून 2008

कनफ्यूजन है भाई....

सिद्धातों को लेकर, उन्हें अपनाने को लेकर, जद्दोजहद चल रही है... क्या सही है क्या गलत है... क्या होना चाहिये क्या नहीं होना चाहिये.... क्या नैतिक है और क्या अनैतिक है... ये "क्या" का सवाल है हर जगह परछाई की तरह मौजूद है... प्रोफेशन भी ऐसा चुना है.... कि क्या क्यूं औऱ कब के सवाल प्रोफेशनल जरूरत है... डेली रूटीन में भी यही सवाल उछलते हैं तो सोचना पड़ता है कि आखिर इसका जबाव किस तरीके से दें... इस सवाल के उत्तर को लेकर मेरी प्रोफेशन के लोगों ने कनफ्यूजन पैदा कर दिया है.... अब मीडिया के मौलवी तो कुछ भी सही और गलत साबित कर दे....

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

दौड़

किसी ने कहा था कि पत्रकारिता को ईमानदारी का साथ चाहिए। आज के दिन ये परिभाषा बदलती हुयी दिख रही है। अब आज के पत्रकारों को पैसे का साथ चाहिए। पैसे के साथ के बाद इमानदारी का साथ चाहिए। अब मीडिया हाउस कारपोरेट हाउस बनते जा रहे हैं। अब मीडिया का हाउस का निर्माण ही उससे होने वाले फायदे से संबंधित होता जा रहा है। मीडिया हाउस का कद उसे बनाते समय ही उतना बड़ा या छोटा निर्धारित किया जा रहा जितनी की जरुरत है।

अगर आप नम्बर दो का काम ज्यादा बड़े पैमाने पर करते हैं तो आपको एक बड़ा मीडिया हाउस बनाना होगा। आपको ज्यादा पैसा लगाना होगा। ज्यादा इनवेस्टमेंट करना होगा। ज्यादा मोटी रकम इस बिजनेस को चलाने के लिए अपने पास रखनी होगी।

देश प्रेम, मानवता, दूसरो की भलाई के लिए काम करने वाली बात केवल किताबों तक सिमट कर रह गयी हैं। ये बाते किताबी बातें है। इनका कोई अस्तित्व नहीं बचा है। यही कारण भी है कि आज मीडिया कमजोर हो रहा है। मीडिया कमजोर हो रहा है तो जाहिर सी बात है कि मीडिया मैन भी कमजोर होता जा रहा है। इस नुकसान से हर कोई वाकिफ है। लेकि फिर दौड़ जारी है...  सैलरी ज्यादा से ज्यादा पाने की दौड़...

कभी-कभी रिश्ते भी पैसों की जगह लेते हैं

किसी ने कहा था कि पत्रकारिता को ईमानदारी का साथ चाहिए। आज के दिन ये परिभाषा बदलती हुयी दिख रही है। अब आज के पत्रकारों को पैसे का साथ चाहिए। पैसे के साथ के बाद इमानदारी का साथ चाहिए। पैसा पहले है इमानदारी बाद में हैं। अब मीडिया हाउस कारपोरेट हाउस बनते जा रहे हैं(अगर कहूं की बन गये है तो ज्यादा सही होगा)। अब मीडिया हाउस का निर्माण ऐसे ही होता है...
कोई नहीं कहता कि किस तरह की दुनिया उनकी है। लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरों की दुनिया उनके जैसी हो।
दोनों बाते अलग हैं।
कभी-कभी रिश्ते भी पैसों की जगह लेते हैं।

सोमवार, 12 नवंबर 2007

क्योकि ससूर भी कभी जवांई था

ससुर यानि घर के कोने में पड़ा रद्दी का अखबार ट्विस्ट नहीं ला सकता... बेचारा हमेशा लाचार और निरीह रहता है...कोई भी कहानी हो..वो कभी केंद्र नहीं बनताबालीवुड के सुचितावादी निर्माता भी उस पर कोई फोकस नहीं करते

बुधवार, 7 नवंबर 2007

First strike

कभी सोचा भी न था कि यहां दिल्ली में बैठ कर ब्लाग लिखूंगा। ब्लाग लिखने की कहानी से ज्यादा बड़ी न लिखने की कहानी है। आज उस पते का प्रयोग नहीं कर पा रहा हूं जिसने मुझे Times o f india की वेबसाइट पर जगह दी । जिस नाम से मैं पता नहीं कितनों के बीच जाना गया और जहां अभी भी लोग एक बार जरूर गुजरते हैं वो ही पता अनजाना हो गया है। वह पता जुड़ा है ढेर सारी खुशियों यादों और दुख से। लेकिन फिर भी जब आज ...पहली बार हिंदी में ... और एक नये कलेवर के साथ लिखने बैठा तो सबसे पहले वही याद आया।

दिल्ली आये छह महीने हो गये हैं। जिसके पीछे योगदान, सहायता और सब कुछ जो किसी मीडिया मैन को मीडिया रोड पर पैर रखने की जगह बनाता है... वह सब सचिन भाई का है। अगर वे यहां न होते तो दिल्ली में आ तो जाता पर आज जिस पोजीशन पर हूं उस पोजीशन पर नहीं होता। उनका एहसान है। उन्होंने उस वक्त साथ दिया जब मैं उनसे उम्मीद ही नहीं कर रहा था। जिससे उम्मीदे थी वे बदल गये या यूं कहूं कि सही वक्त पर साथ ही नहीं दिया।

फिलहाल दिल्ली की मीडिया रोड पर लड़खड़ा ही सही दौड़ना शुरु कर चुका हूं। अभी तक गिरता ही रहा हूं। पर कई बार उठा भी हूं। लेकिन पहली स्ट्राइक है औऱ टीम को जिताना है।

सचिन भाई आपको एक बार फिर से धन्यवाद... जानता हूं आपने जितना किया है उसके आगे धन्यवाद शब्द छोटा है पर अभी तो यही है मेरे पास ....आपको देने के लिए।